Monday, September 6, 2010

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी ...

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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ लेकिन फ़िर भी कम निकले ।

डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूँ, जो चश्म-ए-तर से ‘उम्र भर यूँ दम-बा-दम निकले ।

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आयें हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले ।

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले ।

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे से उठा ज़ालिम
कहीं ‘एसा न हो याँ भी वोही क़ाफ़िर सनम निकले ।

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा “ग़ालिब” और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले ।
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